ईश्वर के विधान के अनुसार भिन्न-भिन्न युग में भगवत्प्राप्तिके भिन्न-भिन्न साधन हैं। जैसे सत्ययुग में जब मनुष्य की आयु एक लाख वर्ष थी, तब भगवत्प्राप्ति का साधन तप अर्थात तपस्या हुआ करती थी। उस समय ऋषिमुनि हजारों वर्षों तक तपस्या किया करते थे,क्योंकि उनमें ऐसा बल या क्षमता थी।
त्रेतायुग में जब मनुष्य की आयु दस हजार वर्ष थी, तब ईश्वर प्राप्ति का उत्तम साधन यज्ञ को माना गया और द्वापर में जब मनुष्य की आयु घट कर एक हजार वर्ष रह गयी,तब पूजा अर्चना साधना का उपयुक्त साधन बन गया।
अब कलियुग में जब मनुष्य की आयु सौ वर्ष तक सिमट कर रह गई और उसकी शक्तिका भी अतिशय ह्रास हो चुका है,तब नाम स्मरण जैसे सरल और सहज साधनोको ही सर्वोत्तम बताया गया है।
संत तुलसीदास जी ने कहा है:-जासु नाम सुमिरत एक बारा। उतरहिं नर भवसिंधु अपारा।।अर्थात जिसके एक बार के नाम सुमिरन से जीव अपार भव सागर के पार उतर जाता है,वही ईश्वर वरेण्य है,स्मरणीय है,आत्म सात करने योग्य है एवं भजनीय है।महापुरूषों का कहना है कि स्मरण का अपना एक विज्ञान है, हम स्मरण उसी व्यक्ति का कर सकतें है,जिससे हमारा निकटता का सम्बन्ध होता है।
जैसा के गीता अध्याय ७ में लिखा है:
अर्थात
जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये ।
ते ब्रह्म तद्विदुः कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम् ॥
जो मेरे शरण होकर जरा और मरण से छूटने के लिए यत्न करते हैं, वे पुरुष उस ब्रह्म को, सम्पूर्ण अध्यात्म को, सम्पूर्ण कर्म को जानते हैं॥29॥
संस्कार क्रिया से शरीर, मन और आत्मा मे समन्वय और चेतना होती है।
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