भक्ति और हम
हम हमेशा इस बात से परेशान रहते है के हमारी भक्ति भगवान् तक पहुंच क्यों नहीं रही, सोचिये, भक्ति भाव से होती है ना की आप कितना समय देते है भगवान् को, हमारी भक्ति अस्थाई और छड़भंगुर होती है,
हम भक्ति ज़रूर करते है पर जब हम घोर मुसीबत में होते है तब हमारा समर्पण पूर्ण होता है वरना हम सिर्फ कथन के लिया समर्पित होते है और परेशान होते है की भगवन हमारी प्राथना सुन नहीं रहा है, जहा परेशानी समाप्त वहाँ समर्पण भी,
हम भक्ति करते है मांगने के लिए ना की धन्यवाद् देने की लिए,
प्राचीन काल में ऋषि-मुनि साधना करते थे, पूर्णतया समर्पित और एक मंत्र, तब प्रभु प्रसन्न होते थे, और हम, प्रभु को प्रसन्न करने के लिया क्या क्या अर्पित और प्रलोभन नहीं करते,
भगवान् ऐसा कर दो तोह वैसा कर दूंगा, अरे मित्रों एक बार समपर्ण तो करके देखो, पूर्ण्तया, पूर्णतय अर्थात हर परिस्थति में, निस्वार्थ,
भक्ति में भाव हो जन कल्याण का तभी आपका कल्याण होगा क्योकि आप नर है और नर ही नारायण है, सोचिये
संस्कार क्रिया से शरीर, मन और आत्मा मे समन्वय और चेतना होती है,
इसलिए सरल रहें; सहज, मन कर्म वचन से सद्कर्म में लीन रहें। प्रभुमय रहें।
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