इन्द्र ! पहले तुमने जो कुछ किया था , उसी कर्म का यह फल आज तुम्हें मिल रहा है । केवल भोग से ही इसका क्षय होगा । धर्मशास्त्रकारों ने ब्रह्महत्या के लिये कोई प्रायश्चित्त नहीं देखा है ।
उनकी दृष्टिमें ब्रह्महत्या दूर करनेके लिये कोई प्रायश्चित्त है ही नहीं । अनजान में जो पाप हो जाता है, उसी के निवारण का उपाय धर्म शास्त्रज्ञ विद्वानों ने बताया है ।
जो पाप स्वेच्छापूर्वक जान - बूझकर किया जाता है , उसके प्रतिकार का कोई उपाय नहीं । इच्छापूर्वक जान - बूझकर किया हुआ पाप अनिच्छा या अज्ञानपूर्वक किये हुए पाप की श्रेणी में नहीं आ सकता ।
विषय - भेद से इन दोनों प्रकार के पापों का प्रायश्चित्त नियत किया गया है ।
जान - बूझकर किये हुए पाप के लिये मरणान्त प्रायश्चित्तका विधान है । अज्ञान जनित पाप के लिये विशेष - विशेष प्रायश्चित्त बताया गया है ।
तुमने जो पाप किया है , वह अनजान में नहीं हुआ है ; तुम्हारे द्वारा स्वयं जान - बूझकर विद्वान् पुरोहित ब्राह्मण का वध किया गया है । अतः उसके निवारणका कोई उपाय नहीं है । जब तक मृत्यु नहीं हो जाती , तब तक तम इस जल में ही स्थिर भाव से पड़े रहो ।
दुर्मते ! तुम्हारे सौ अश्वमेध यज्ञोंका फल तो उसी समय नष्ट हो गया , जब तमने बाहाण की हत्या की थी । जैसे छेदवाले घडे में थोड़ा भी जल नहीं ठहरता , उसी प्रकार पापी मनुष्य का पुण्य प्रतिक्षण नष्ट होता रहता है ।
स्कन्दा पुराण
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