यह निर्मल शिवपुराण भगवान् शिव के द्वारा ही प्रतिपादित है । यह समस्त जीवसमुदाय के लिये उपकारक , त्रिविध तापों का नाश करने वाला , तुलना- रहित एवं सत्पुरुषों को कल्याण प्रदान करने वाला है । इसमें वेदान्त - विज्ञानमय , प्रधान तथा निष्कपट ( निष्काम ) धर्मका प्रतिपादन है ।
पूर्वकाल में भगवान् शिव ने श्लोक संख्या की दृष्टि से सौ करोड़ श्लोकों का एक ही पुराणग्रन्थ ग्रथित किया था । सृष्टि के आदि में निर्मित हुआ वह पुराण - साहित्य अत्यन्त विस्तृत था । फिर द्वापर आदि युगों में द्वैपायन ( व्यास ) आदि महर्षियों ने जब पुराण का अठारह भागों में विभाजन कर दिया , उस समय सम्पूर्ण पुराणों का संक्षिप्त स्वरूप केवल चार लाख श्लोकों का रह गया । उस समय उन्होंने शिवपुराण का चौबीस हजार श्लोकों में प्रतिपादन किया । यही इसके श्लोकों की संख्या है । यह वेदतुल्य पुराण है ।
शिव पुराण में १२ भेद या खंड है, जो इस प्रकार है:-
विद्येश्वरसंहिता, रुद्रसंहिता , विनायक संहिता , उमा संहिता , मातृ संहिता , एकादशरुद्र संहिता , कैलास- संहिता , शतरुद्र संहिता , कोटिरुद्र संहिता , सहस्त्र - कोटिरुद्र संहिता , वायवीय संहिता तथा धर्म संहिता -इस प्रकार इस पुराण के बारह भेद या खण्ड हैं । ये बारह संहिताएँ अत्यन्त पुण्यमयी मानी गयी हैं ।
विद्येश्वरसंहिता में १० हज़ार श्लोक है ,
रुद्रसंहिता, विनायक संहिता , उमासंहिता और मातृसंहिता, इनमे प्रत्येक में ८-८ हज़ार श्लोक है .
एकादशरुद्र संहिता में तेरह हजार श्लोक हैं,
कैलास संहिता में छः हजार,
शतरुद्र संहिता में तीन हजार ,
कोटिरुद्र संहिता में नौ हजार ,
सहस्रकोटिरुद्र संहिता में ग्यारह
वायवीय संहिता में चार हजार तथा,
धर्मसंहिता में बारह हजार श्लोक हैं
इस प्रकार मूल शिवपुराण की श्लोक संख्या एक लाख है । परंतु व्यासजी ने उसे चौबीस हजार श्लोकों में संक्षिप्त कर दिया है । पुराणों की क्रमसंख्या के काम विचार से इस शिवपुराण का स्थान चौथा, इसमें सात संहिताएँ हैं ।
संस्कार क्रिया से शरीर, मन और आत्मा मे समन्वय और चेतना होती है
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