भक्ति ईश्वर के प्रति मन और बुद्धि का पूर्ण समर्पण है,तन की क्रिया नहीं।
माला,जप,तप, व्रत, उपवास,पूजा आदि कर्मकांड हैं जो भक्ति की अनुभूति कराने में सहायक हैं। भगवान से प्रेम हो तो वह अनन्य होना चाहिए,क्योंकि मिश्रित प्रेम भगवन को पसंद नही, सन्त कबीरदास जी ने कहा है:-" माला फेरत जुग भया, गया न मन का फेर। करका मनका डारि कर, मन का मनका फेर।।"
तुलसीदास जी कहतें है जिस प्रकार कामी पुरुष अपनी प्रेमा-स्पद स्त्री का चिंतन आठों प्रहर करता है उसे एक पल भी नहीं भूलता है, जिस प्रकार लोभी व्यक्ति सतत धन का चिंतन करता रहता है, उसे एक पल के लिए भी नहीं भूलता है,उसी प्रकार साधक को भी ईश्वर का सतत सुमिरन करना चाहिए-कामिहि नारि पियारि जिमि लोभिहिं प्रिय जिमि दाम। तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम।
भक्ति और भक्त दोनों एक दूसरे के समर्पण है, हमारी भक्ति मांगने के लिए होती है, छड़भंगुर होती है अथवा अस्थाई होती है, हम भक्ति अपने आनंद और समय के अनुसार करते है, और उस भक्ति को हम अपनी सोच से उचित भी बना देते है।
भक्ति समर्पण से होती है, भक्त अगर शुद्ध चितः मन से अगर छड़भर के लिए भी प्रभु का सिमरन करे तो प्रभु उसकी सुनते है, हमे याद रखना है के भक्त को कुछ मांगने के ज़रुरत नहीं है प्रभु से, उन्हे तो सब ज्ञात है क्योंकि वे हमारे अंदर विराजमान है अंश की तरह, सोचिये।
संस्कार क्रिया से शरीर, मन और आत्मा मे समन्वय और चेतना होती है, कृप्या अपने प्रश्न साझा करे, हम सदैव तत्पर रहते है आपके प्रश्नो के उत्तर देने के लिया, प्रश्न पूछने के लिया हमे ईमेल करे sanskar@hindusanskar.org संस्कार और आप, जीवन शैली है अच्छे समाज की, धन्यवाद्
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